Monday, December 5, 2011

KOLAVERI ..........D

 प्रसार तंत्र का दबाव 

आज की युवा पीढ़ी जिस स्तर का संगीत पसंद करती है उस वातावरण में "कोलावेरी डी" एक आविष्कार की तरह है जिसकी धुन औसत है और बोल अर्थहीन हैं लेकिन फिर भी आज हर व्यक्ति के बीच यह चर्चा का विषय बना हुआ है, खासतौर पर युवा वर्ग जो अपना अधिकतर समय इन्टरनेट पर सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर गुज़रता है | इस गीत को सर्वप्रथम "यू ट्यूब" पर लोड किया गया था जिसके द्वारा सारी दुनिया में इसका प्रचार हुआ और लाखों करोड़ों लोगों ने इसे सुना और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की जब करोड़ों प्रतिक्रियाएं इन्टरनेट पर आने लगी तो अन्य लाखों लोगों ने भी इसे उत्सुकतावश देखा और सुना और प्रसार तंत्र के माध्यम टेलिविज़न और रेडियो चेनल्स पर भी इसे प्रसारित किया जाने लगा और करोड़ों की भीड़ और प्रसार तंत्र ने ऐसा दबाव बनाया की इस गीत ने दुनिया में धूम मचा दी और लोग इसे सुनने के लिए बाध्य हो गए. इसका मुख्य श्रेय प्रसार तंत्र को ही जाता है क्योंकि आने वाले समय में यह गीत अन्य किसी अर्थहीन गीत के प्रचार और प्रसार के बोझ तले दब जायेगा तब हम "व्हाय दिस कोलावेरी डी" की जगह बोलेंगे " वेयर इज कोलावेरी डी ".

Tuesday, October 18, 2011

SHAYAD BACHPAN FIR LAUT AAYE.....

शायद बचपन फिर लौट आए..................................................

 आज की शिक्षा प्रणाली में किताबों और बस्तों के बोझ तले बचपन कहाँ दब गया पता ही नहीं चला. दशहरे और दिवाली की २५ दिनों की छुट्टियाँ आज की पीढ़ी के लिए नाना नानी के किस्से कहानियों जैसी हो गई है और कुछ सालों बाद ढूँढने पर अवशेष भी नहीं मिलेंगे. दशहरा और दिवाली का त्यौहार हमारी सांस्कृतिक परंपरा है और दशहरे से दिवाली तक का समय एक उत्सव की तरह सम्पूर्ण हर्षौल्लाह्स के साथ मनाया जाता है चारों और रौनक ही रौनक दिखाई देती है जिसका खासतौर पर बच्चों में अत्यधिक उत्साह होता है. ग्रामीण अंचलों में भी ये छुट्टियाँ अत्यधिक महत्व रखती थी क्योंकि यह समय होता है रबी की फसल कटने का. परिवार की सभी बड़े बुज़ुर्ग और महिलाएं खेतों में फसल काटते हैं और घर के बड़े बच्चे छोटे बच्चों को संभाल लेते थे. लेकिन आज कल छुट्टियाँ मुट्ठी में रखी रेत की तरह फिसल जाती हैं और त्यौहार को छुकर ऐसे गुज़र जाती है जैसी कोई तेज़ हवा का झोंका.
पहले जब बच्चे दिवाली की छुट्टियों के बाद  स्कूल जाते थे तो कई दिन सिर्फ चर्चाओं में बीतते थे हर बच्चा उत्साह के साथ अपना अनुभव सुनाता था त्यौहार का असर धीरे धीरे कम होता था और ज़िन्दगी वापस अपनी पटरी पर आ जाती थी. लेकिन अब बच्चा मायूस सा चेहरा लेकर लौटता है और चर्चा में होता है होमवर्क, असायिन्मेंट्स और प्रोजेक्ट्स. होमवर्क का बोझ इतना अधिक होता है की बच्चा त्यौहार भूलकर होमवर्क में लग जाता है.
जब सरकार द्वारा गर्मी की छुट्टियों में कटौती कर ही दी गई है तो दिवाली की छुट्टियों को पुनः २५ दिन करना जायज़ है. शायद इसी बहाने इस पीढ़ी का बचपन फिर लौट आए और बच्चे त्योहारों का आनंद ले सके... 

Monday, August 1, 2011

VASTVIKTA KE NAAM PAR ASHLEELTA

वास्तविकता के नाम पर अशलीलता............................................................................................................

अगर हम हिंदी सिनेमा के पिछले एक दशक पर गौर करे तो वास्तविकता और यथार्थवादी फिल्मो का निर्माण अधिक हुआ है और निर्माता एवं निर्देशकों ने वास्तविकता के नाम पर हिंसा और अशलीलता को खूब परोसा है. अभी हम इससे उबर भी नहीं पाए थे के " डेली बेली " ने इस पर गालियों का तड़का और लगा दिया. हमारे समाज का कोई भी वर्ग प्रचलित गालियों से अछूता नहीं है, हमे रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में इन गालियों का सामना करना ही पड़ता है. 
इसी दौर में " सिंघम " जैसी फिल्म भी आई जिसमे बिना किसी हिंसा एवं क्रूरता के एक्शन दृश्यों का मनोरंजक ढंग से प्रस्तुतिकरण किया गया, नायिका को भी सौम्यता से प्रस्तुत किया गया और संवाद भी अश्लील और फूहड़ नहीं थे. साथ ही साथ पुलिस की छवि और कार्यप्रणाली पर भी करारा प्रहार किया गया और अंत में यह सन्देश भी था की सिस्टम में रहते हुए भी बुराइयों का अंत  किया जा सकता है. फिल्मो का उद्देश्य होता है मनोरंजन के साथ समाज को एक सकारात्मक सन्देश भी दे लेकिन " डेली बेली " देखकर ऐसा लगता है की इस फिल्म ने सिर्फ उन लोगों के शब्द कोष में वृद्धि की है जिनके वाक्य की शुरुआत और अंत ही गालियों से होती है. हो सकता है की " डेली बेली " भविष्य में निर्मित होने वाली फिल्मो का आधारस्तंभ बन जाये जिनमे गालियों का प्रयोग आम हो जायेगा.

Saturday, July 30, 2011

SADI KA MAHA GAYAK ( KISHORE KUMAR)

सदी का महा गायक ................... किशोर कुमार...
किसी ने सही कहा था, किशोर कुमार जैसे गायक सदियों में एक बार ही जन्म लेते हैं. आज किशोर दा हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके नगमे दुनिया में आज भी उसी शिद्दत के साथ सुने जाते हैं. बिना किसी संगीत की विधिवत शिक्षा के उन्होंने गायकी को अपनाया और अपनी अनोखी आवाज़ से ५० और ६० के दशक के हताश युवा वर्ग में एक जोश और जूनून भर दिया. इस अश्व्घोशी आवाज़ के मालिक ने पूरे हिन्दुस्तान को अपनी आवाज़ का दीवाना बना दिया. जितने अच्छे वे अदाकार थे उतने ही महान वे गायक थे. उनकी यूडलिंग और गीत को सहजता से गाने की कला आज भी लोगों के दिलों को छूती है. शास्त्रीय संगीत हालाँकि उनकी शैली में शामिल नहीं था फिर भी शास्त्रीय धुनों पर आधारित गीतों को बखूबी निभाया जैसे महबूबा फिल्म का गीत " मेरे नैना सवानभादों "  ( राग शिवरंजनी ) आज भी लोगों के ज़हन में ताज़ा है, उनके रोमांटिक गीतों ने लोगों का दिल बहलाया, मस्ती भरे गीतों ने लोगों को खूब हंसाया और दर्द भरे गीतों ने लोगो रुलाया.
सन १९६९ की फिल्म "आराधना" का गीत " मेरे सपनो की रानी " किशोर दा की ज़िन्दगी का टर्निंग पॉइंट था यह समय था उस दशक  के उभरते संगीतकार आर. डी बर्मन का इन दोनों कलाकारों की जोड़ी ने ७० से लेकर ८० के दशक तक अनगिनत लोकप्रिय गीत दिए इन गीतों को हर उम्र के लोगों द्वारा पसंद किया गया. किशोर दा जब भी किसी गीत को गाते थे तो गाने से पहले उस गीत की हर बारीकी को समझते थे कि यह किस अभिनेता पर फिल्माया जा रहा है गीत की सिचुएशन क्या है, यह जान लेने के बाद वे अपनी आवाज़ में वे भाव पैदा करते थे जिससे कि गीत वास्तविक स्तिथि के अनुसार लगे, अभिनेता कि आवाज़ में अपनी आवाज़ को ढालने कि कला सिर्फ किशोर दा में ही थी. "हाफ टिकिट" फिल्म का गीत "आ के सीधी लगी जैसे दिल पे कटरिया" किशोर दा और प्राण साहब पर फिल्माया गया है इस गीत में किशोर दा ने खुद पर फिल्माया हुआ टुकड़ा लड़की कि आवाज़ में गाया है और प्राण साहब पर फिल्माया हुआ लड़के कि आवाज़ में. यह गीत सुनने के बाद प्राण साहब खुद बोले कि मुझे ऐसा लगा जैसे कि यह मेरी ही आवाज़ है. देव आनंद, संजीव कुमार, अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, ऋषि कपूर ऐसे कई अभिनेता हैं जिनकी आवाज़ को किशोर दा ने बड़ी ख़ूबसूरती से निभाया. 
किशोर दा में अभिनय और गायकी के अलावा संगीत निर्देशन, गीतकार, निर्माता एवं निर्देशक की भी प्रतिभा थी. उनकी फिल्मे आज भी फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास में अविस्मर्णीय है. अपने गाए लगभग २५०० से अधिक गीतों में सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों का रिकॉर्ड सिर्फ किशोर दा का ही है. अपने जीवन के संगीत सफ़र में किशोर दा ने सभी मूड के गीत गाए जिसमे ग़ज़लें भी शामिल हैं जैसे फिल्म "दर्द का रिश्ता" का गीत " यूँ नींद से वो जाने चमन जाग उठी है " ने यह साबित कर दिया था की वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे.
किशोर कुमार जैसी शकसियत को भुला पाना किसी भी सदी में संभव नहीं होगा, जो गीतों का खजाना उन्होंने इस दुनिया को दिया है वो कभी ख़त्म नहीं हो सकता. उनका असली नाम 'आभास कुमार गांगुली' था और उनके गीतों द्वारा उनके सभी चाहने वालों को उनका "आभास" हमेशा होता रहेगा. अपनी मृत्यु के पहले उन्होंने एक बार लीना जी को कहा था " देखना एक दिन लोग मुझे पुकारते रहेंगा और मै लौट कर नहीं आऊंगा ". लेकिन महागायक मरा नहीं करते उनकी आवाज़ सदियों तक लोगों के दिलों में सफ़र करती रहती है और कहती रहती है " राहों पे रहते हैं यादों में बसर करते हैं .....खुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं ".
 

Friday, May 20, 2011

POST 2

भाषा और हमारा व्यक्तित्व.... ( LANGUAGE AND OUR PERSONALITY )
भाषा क्या केवल "भाष" धातु से बना एक शब्द है या इससे अधिक कुछ और ?
वर्तमान परिपेक्ष्य में यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण और ज्वलंत विषय है | भाषा को केवल विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम भर समझा जाता है जबकि यह वह ज़रिया है जिसके द्वारा हम समूचे विश्व से रूबरू होते हैं |  तब क्या इस ज़रिये का पूर्ण रूप से शुद्ध और प्रभावी होना महत्वपूर्ण नहीं है ? ऐसा क्यों होता है यद्यपि बोलने का सामर्थ्य इश्वर प्रद्दत है और इसके लिए हमे कुछ विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता तथापि हम में से कुछ लोग ही ऐसे हैं जब वे बोलना प्रारंभ करते हैं तो शेष सभी उन्हें सुनने के लिए विवश हो जाते हैं | 
वस्तुतः प्रस्तुतीकरण ( PRESENTATION ) के इस दौर में भाषा हमारे व्यक्तित्व का आईना हो चली है बाह्य रूप से कोई व्यक्ति कितना ही आकर्षक हो परन्तु यह प्रभाव अधिक समय तक नहीं रह सकता यदि उसका भाषा पर विशेष अधिकार न हो | वहीँ सामान्य व्यक्तित्व  के साथ कोई भाषा का जादूगर गहरा प्रभाव छोड़ सकता है |
यहाँ उल्लेखनीय है कि आज की युवा पीढ़ी जब उच्च शिक्षा के बाद जीवन-चर्या ( CAREER ) के निर्णायक  मोड़ पर होती है तब उसे सिरे से नकार  दिया जाता है और उसे व्यक्तित्व विकास ( PERSONALITY DEVELOPMENT )  जैसे पाठ्यक्रमो के समक्ष शरणागत होना पड़ता है | मूल रूप से यह हमारी शिक्षा व्यवस्था की दयनीय स्थिति का घोतक है जो बड़े पैमाने पर अन्धाधून्द गति से शिक्षा का ऐसा महल बनाने  में व्यस्त है, जिसकी भाषा रुपी नीव ही अत्यंत कमज़ोर है |
गौरतलब है जहाँ विदेशों में प्राथमिक कक्षाओं में भी बच्चों को शब्दकोष रखना अनिवार्य है, वहीँ हमारे विश्वविद्यालयीन छात्र भी शब्दकोष के महत्व से अनभिज्ञ हैं |
वैश्वीकरण ( GLOBALIZATION ) के इस युग में आवश्यक है कि हम न केवल प्रादेशिक भाषाओँ की राजनितिक लड़ाइयों से उबरें वरन हिंदी- अंग्रेजी के बचकाना विवादों से बचते हुए वृहद् स्तर पर परिपक्व मानसिकता से इस विषय पर निर्णायक विचार करें कि विश्व की कोई भी भाषा कम या अधिक महत्वपूर्ण नहीं है | महत्वपूर्ण है किसी भी भाषा का शुद्ध और सही प्रयोग और इस दिशा में किये गए सार्थक प्रयास |

POST 1

इच्छा, आवश्यकता और बाजारवाद ...................................
परम्पराओं और मूल्यों का परिवर्तन वर्त्तमान समय की एक ऐसी सच्चाई है जिसे नकारा जाना संभव नहीं है | बदलाव की इस आंधी में इच्छाओं और आवश्यकताओं के बीच का अंतर बहुत कम हो गया है | यदि आर्थिक मंदी जैसी वैश्विक समस्याओं का विश्लेषण किया जाये तब भी मूलतः यही निष्कर्ष निकलता है कि जब-जब चादर से अधिक पैर फ़ैलाने कि कोशिश की गई और मनुष्य इच्छाओं को आवश्यकता समझने का भ्रमजाल बुनता रहा तब-तब आर्थिक समस्याओं से दो-दो हाथ होता रहा | इसके लिए किसी हद तक बाजारवाद भी ज़िम्मेदार है जो एक आवश्यक वस्तुओं के इर्द गिर्द पचास अनावश्यक वस्तुओं को इस सलीके से प्रस्तुत करता है कि एक साधारण मनुष्य के लिए मोह संवरण कर पाना मुश्किल हो जाता है  और मॉल संस्कृति की इसी चकाचौंध से वशीभूत मानव दस आवश्यक वस्तुओं के साथ अनाश्यक वस्तुएं खरीद लाता है और जब उसकी जेब इस आर्थिक बोझ को वहन करने में असमर्थ हो जाती है तो धनार्जन के तमाम जायज़ तरीकों को ताक पर रख कर अधिक से अधिक धन कमाने कि ऐसी अंधी दौड़ में शामिल हो जाता है जो आर्थिक अपराधों कि जन्मदात्री है | 
आज के तकनीकी विकास ने बाज़ार को ऊँगली पकड़ कर घरों में दाखिल कर दिया है टेलिविज़न और इन्टरनेट से हम खुद को विश्वबाजार में खड़ा पाते हैं | यह सही है कि बाजारवाद को रोकना संभव नहीं है लेकिन मनुष्य अपनी इच्छाओं पर शत-प्रतिशत काबू पा सकता है | यदि वह ठान ले कि दो लोगों के घर में "फोर बर्नर" चूल्हे कि क्या आवश्यकता है ! एक सिम से काम चलता हो तो ड्युअल सिम फोन कि क्या ज़रूरत है ! यदि दफ्तर सौ कदम की दूरी पर हो तो कार की जगह साइकिल से काम चलाया जा सकता है ! परन्तु कार खरीदने  के पीछे सुविधा कम और स्टेटस अधिक दिखाई देता है | दरअसल यहाँ ज़रूरत उलटी गिनती की है .............. आर्थिक अपराधों के पीछे बाजारवाद .... बाजारवाद के पीछे हमारी अपनी इच्छाएँ ....  और इच्छाओं के पीछे डरी सहमी सी आवश्यकताएँ ...... और ज़रुरत है तो बस समझदारी से आवश्यकताओं पर रुक जाने की ठहर जाने की ................

Tuesday, April 12, 2011

R.D BURMAN OR RESEARCH AND DEVELOPEMENT BURMAN

आर. डी बर्मन या रिसर्च एंड डेवलपमेंट  बर्मन 
आर. डी बर्मन ने संगीत की दुनिया में जो आविष्कार और प्रयोग किये हैं वे किसी वैज्ञानिक द्वारा किये जा रहे अविष्कारों और प्रयोगों से कम नहीं है. सन ७० से लेकर ८० के दशक तक उन्होंने हिन्दुस्तानी संगीत को जो नया आयाम दिया उसे ही आज के दौर के संगीतकारों ने आधार बना कर संगीत की दुनिया में अपनी पहचान बनाई है. शायद ही उस दौर का कोई स्थापित गायक या गायिका या फिर कोई नवोदित कलाकार रहा होगा जिसने आर.डी बर्मन के संगीत निर्देशन में गीत न गाये हों या गीत गाने का सपना न देखा हो. नए कलाकारों को जितना मौका आर.डी बर्मन ने दिया शायद ही उस दौर के किसी संगीतकर ने दिया होगा. शैलेन्द्र सिंह जो उस ज़माने के एक युवा और नवोदित गायक थे उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था मेरे जीवन का टर्निंग पॉइंट पंचम हैं फिल्म "खेल खेल में का हमने तुमको देखा, ज़माने को दिखाना है का गीत होगा तुमसे प्यारा कौन और सागर का जाने दो ना "आज भी लोगों क जुबान पर हैं. शैलेन्द्र सिंह कहते हैं पंचम ने कभी भी किसी गायक पर संगीत को लेकर दबाव नहीं बनाया गायक की आवाज़ और उसकी क्षमता के अनुसार वे अपने संगीत में परिवर्तन कर लेते थे.
आशा जी की आवाज़ को एक वाद्य यन्त्र की तरह उपयोग में लाना आर.डी बर्मन के लिए ही संभव था. लता जी, किशोर दा, रफ़ी साहब, मुकेश जी, मन्ना डे जैसे महान कलाकारों द्वारा पंचम के संगीत निर्देशन में गाये गीत अविस्मर्णीय हैं. 
आर.डी बर्मन ने प्रकृति में मौजूद हर वस्तु में संगीत ढूँढने की कोशिश करी और अपने संगीत में उसे प्रयोग में लाकर सफलता भी प्राप्त करी.......................... आज उस महान वैज्ञानिक का जन्म दिन है. पंचम उनके चाहने वालों के दिलों में हमेशा रहेंगे, और उनके द्वारा किये गए रिसर्च एंड डेवलपमेंट आज के संगीतकारों और युवा पीढ़ी को प्रेरणा देते रहेंगे.

Monday, April 11, 2011

HOTEL LINDSAY KA BHOOT

घटना सन १९९९ की है जब मै बाटा कंपनी में इंटरव्यू  देने कोलकाता गया था उस महानगर की यह मेरी पहली यात्रा थी. जब सवेरे मै हावड़ा स्टेशन पर उतरा तो एक टेक्सी वाले को रोककर पुछा कोलकाता में न्यू मार्केट के आस पास कोई अच्छी होटल है उसने कहा आप चलिए वहां काफी होटलें हैं पसंद  कर लीजियेगा काफी घूमने के बाद हम लिंडसे स्ट्रीट पहुंचे जहाँ होटल लिंडसे मुझे अपने बजट के अनुसार ठीक लगी. होटल के मेनेजर ने मुझे छठी मंजिल पर कमरा दिया कमरा कुछ खास तो नहीं था पर एक अजीब सी मनहूसियत थी उसमे. मेरा इंटरव्यू  दुसरे दिन था इसलिए मै नहा कर अपनी पुरानी कंपनी के ब्रांच ऑफिस में चला गया. शाम अपने दोस्तों के साथ बिताकर मै होटल आ गया और खाना खाकर टी.वी देखने लगा करीब ११.३० बजे मै सोने लगा थका हुआ होने के कारण नींद जल्दी आ गई....................अचानक मुझे ऐसा लगा जैसे कोई मुझे उठा कर बाहर कोरिडोर में लेकर जा रहा है मुझे लगा शायद कोई सपना देखा होगा मैंने दोबारा सोने की कोशिश करी लेकिन जैसे ही मै आँखे बंद करता मुझे महसूस होने लगता कोई मुझे लेकर जा रहा है ............न तो मुझे नींद में चलने की बीमारी है और ना ही मैंने इतनी पी रखी थी की होश न रहे ........................खैर मै रात भर सो नहीं पाया टी.वी देखता रहा..............चूँकि दुसरे दिन मेरा इंटरव्यू  शाम ४ बजे था तो मैंने सोचा दिन में सो जाऊँगा. सुबह जब मै चाय पी रहा था तो मैंने वेटर को रात का हादसा बताया वेटर कुछ घबराहट का भाव चेहरे पर लेकर आया और बिना कुछ कहे चला गया ...मैंने मेनेजर से चर्चा करी तो उसने कहा कुछ नहीं साहब आपका वहम होगा मैंने कहा आप मेरा रूम बदल दीजिये मेनेजर ने कहा अभी कोई रूम खाली नहीं है शाम तक कोशिश करूंगा. 
मै शाम को इंटरव्यू देने चला गया वहां से लौटा तो मेरा दोस्त होटल में मेरा इंतज़ार कर रहा था मैंने कहा बस मै कपडे बदल लूं और रूम शिफ्ट कर लूं फिर हम निकलते हैं ..............हम जैसे ही रूम में पहुंचे बाथरूम में कमोड के ऊपर का फ्लश टेंक टूटा हुआ था और पानी बह रहा था और बाथरूम में खून की दुर्गन्ध आ रही थी मैंने तुरंत मेनेजर को बुलाया और जिद करी की रूम बदल कर दे नहीं तो मै होटल छोड़ कर जा रहा हूँ  मेनेजर ने वेटर को कह कर मेरा सामान दूसरे रूम में शिफ्ट कर दिया. सामान  शिफ्ट कर के हम लोग बाहर चले गए जब मै रात में लौटा तो रात की ड्यूटी वाले वेटर से मैंने उस कमरे के बारे में पुछा वेटर ने किसी को न बताने की कसम देकर कहा साहब........... कई साल पहले इस कमरे में एक आदमी की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी और काफी सालों तक कमरा खाली पड़ा था लेकी जब से खुला है वहां कुछ न कुछ इसी तरह का होता रहता रेगुलर कस्टमर वहां नहीं रुकते आप नए थे इसलिए आप को वो कमरा दे दिया...........आप कृपया मेनेजर से मत कहियेगा वरना मेरी नौकरी चली जाएगी............दुसरे कमरे में मै रात में आराम से सोया और अगले दिन मेरी ट्रेन थी इंदौर के लिए इस लिए मैं सुबह होटल चेकआउट कर दी और अपने दोस्त के घर निकल गया और शाम को ट्रेन पकड़ कर इंदौर की और रवाना हो गया लेकिन आज तक यही सोच रहा हूँ की...... लिंडसे होटल का वो भूत कौन था.
घटनाए अभी बाकि हैं ........................

Sunday, April 10, 2011

JAN LOKPAL VIDHEYAK

विधेयक के प्रारूप पर निर्भर होगा भ्रष्टाचार का  नियंत्रण 
जन लोकपाल विधेयक का पारित होना हमारे देश में हो रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ नियंत्रण की एक सकारात्मक पहल है. लेकिन भ्रष्टाचार का समाप्त होना निर्भर करेगा विधेयक के प्रारूप पर उसकी नियमावली पर. कानून अगर सख्त होगा तो ही हम उम्मीद कर सकते हैं की दागी नेता, मंत्री एवं अधिकारीयों को कड़ी से कड़ी सजा मिले. लेकिन कानून तो हमारे देश में कई बनते हैं और सिस्टम की कोम्प्लेक्सिटी का फायदा उठा कर उस कानून से बचने के उपाय पहले ही सोच लिए जाते हैं और अपराधी क्लीन चिट लेकर बाहर आ जाते हैं और केस फाइलों में दब कर रह जाते हैं.
आम जनता जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन में खडी है अगर अपना आत्मवलोकन करे तो हम भी कहीं न कहीं भ्रष्ट हैं उदाहरण के तौर पर आम जनता ही रेल्वे में टी. टी को सीट के लिए रिश्वत देती है, वाहन के कागज़ात न होने पर हम ही ट्राफिक पुलिस को चालान न काटने की गुहार लगते हुए रिश्वत देते हैं ऐसे और भी कई उदाहरण हैं जहाँ हम खुद भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं ........................सबसे पहले आम जनता को खुद इस आदत पर अंकुश लगाना होगा तभी हम भ्रष्टाचार का सही मायनों में विरोध कर पाएंगे अन्यथा कितने भी कानून बन जाएँ यह समस्या समाप्त नहीं हो पायेगी .

जयदीप भागवत
१९..सन सिटी 
महालक्ष्मी नगर , इंदौर ..

Monday, March 28, 2011

अपराध की अंधी गलियों में गुमराह युवा



समाज में हो रहे अपराधों का अगर अवलोकन करें तो इनमे अधिकतर युवा वर्ग शामिल है जो की अपराध की परिभाषा में संगठित अपराध की श्रेणी में नहीं आते हैं...... इनके द्वारा किये जा रहे अपराध या तो बुरी संगत के दोस्तों के बहकावे में आकर या रुपयों के लालच में किये जाते हैं......... इसका मुख्य कारण हमारी संस्कृति का बिगड़ता स्वरुप और आज का सिनेमा भी है जिस प्रकार की हिंसा आज हिंदी सिनेमा में दिखाई जाती है उसका असर युवा वर्ग पर बहुत जल्द पड़ता है..... माना की सिनेमा समाज का आईना है और आज कल वास्तविकता दर्शाने वाली फिल्मो का ज़माना है............ पर ऐसी वास्तविकता दिखाने का क्या फायदा जो आज के युवा वर्ग को अपराध के लिए प्रेरित कर दे...... जितनी सहजता से फिल्मो में हिंसा दिखाई जाती है उतनी ही सरलता से अच्छे सन्देश भी दिए जा सकते हैं पर ऐसा अमूमन कम ही दिखता है.
आज की भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में माता पिता भी काम में व्यस्त रहने के कारण अपने बच्चों की गतिविधियों पर ध्यान नहीं रख पाते......... और अच्छी पारिवारिक पृष्ठभूमि का दावा करने वाले परिवारों के बच्चे ही या तो अपराधी बन जाते हैं या अपने परिवार के लोगों का या दोस्तों का क़त्ल कर देतें हैं............... आज का युवा वर्ग अधिकतर समय.......... डिस्कोथेक्स, पब्स, पाँच सितारा होटल्स और हुक्का लाउंज में  बिताना चाहता है जहाँ विलासिता की भावना जन्म लेती है और शौक पुरे करने के लिए अच्छी खासी रकम की ज़रूरत पड़ती है... ऐसे समय में खासतौर पर मध्यमवर्गीय परिवार के युवा बहक कर अपराध की अंधी गलियों में गुमराह हो जाते हैं.. सोचना हमे है की आज के युवा वर्ग को कैसे सही दिशा दी जाये अन्यथा यह बीमारी इसी तरह बढती रहेगी और न जाने कितने गुलशन समद की तरह  उजड़ते रहेंगे.
  

Monday, March 7, 2011

NGO

एन.जी.ओ की आड़ में अवैध कारोबार  हमारे देश एवं समाज के लिए ये बड़े ही शर्म की बात है की मुंबई के पनवेल छेत्र में मंदबुद्धि महिला आश्रम चलाने वाली एक एन.जी.ओ द्वारा मंदबुद्धि बालिकाओं का योन शोषण किया गया और उन्हें वासना के भूखे भेडियों के सामने परोसा गया ये जानते हुए की कुदरत ने उन मासूमों को सोचने एवं समझने की शक्ति से भी महरूम रखा है.... शर्म आती है हमारे इंसान होने पर और उन लोगों की विक्षिप्त मानसिकता पर जिन्होंने ऐसा कृत्य किया और उन पर जिन्होंने बालिकाओं को इस घिनोने कृत्य में धकेला.
हमारे देश में ऐसे कई संस्थान चल रहे हैं जो समाज सेवा के नाम पर इस प्रकार के घिनोने अपराधों को अंजाम दे रहे हैं...... महिलाओं पर अत्याचार, बलात्कार एवं योन शोषण तो हमारे सभ्य और सुशिक्षित बनने का दावा करने वाले समाज में आम बात है पर इस प्रकार की घटनाएँ इंसान के दरिन्दे होने का प्रमाण देती है.
सरकार को चाहिए की ऐसी संस्थाओं का रजिस्ट्रेशन निरस्त किया जाये और संस्था के संरक्षकों और अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाये.

NETWORK MARKETING

नेटवर्क मार्केटिंग पैसा कमाने का शार्टकट या छलावा
 

नेटवर्क मार्केटिंग का जाल हमारे देश में १९९९ के बाद काफी रफ़्तार से फैला है....................... इसकी शुरुआत एक कनज्युमर प्रोडक्ट कंपनी द्वारा की गयी थी और देखते देखते कई कम्पनियाँ
जैसे जापानी गद्दे, वज़न घटाने वाले उत्पाद, स्वदेशी उत्पाद इत्यादि................. और सिलसिला शुरू हुआ लोगों को कम समय में अधिक पैसा कमाने के सब्जबाग दिखाने का. जैसा की हमारे देश में भेड चाल का रिवाज़ रहा है असंख्य लोग इससे जुड़ने लग गए भीड़ में हर दूसरा आदमी नेटवर्क मार्केटिंग की बात करते हुए दिखाई देता है इससे जुड़े लोगों की बातें सुनकर ऐसा लगता है जैसे दुनिया के सबसे अमीर और सुखी आदमी यही है..
अब अगर हम इन कंपनियों के काम करने के तरीके पर नज़र डालें तो वो अंदाज़ भी बड़ा नायाब है...... अचानक आपके पास किसी पुराने भूले बिसरे दोस्त का फोन आता है जिससे आप शायद पिछले दस सालों से न मिले हों और वह कहता है आज शाम को वो आपके घर चाय पर आना चाहता है आपकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता और आप दोस्त के मिलने की ख़ुशी में शाम होने का इंतज़ार करने लगते हैं.. दोस्त के आते ही कुछ औपचारिक और भूली बिसरी बातों के बाद..... धीरे से आपका दोस्त आपके परिवार, व्यापार, नौकरी या फिर फिनान्शिअल फ्रीडम की बात करने लगता है और सपने दिखाने लगता है अमीर बनने के बिना इस बात को जाने की क्या आप का इस प्रकार के किसी प्रोजेक्ट में रुझान है भी या नहीं या........ आप अपनी वर्तमान जीवन शैली से संतुष्ट हैं या नहीं. आप पर इतना ज्यादा मानसिक और भावुक दबाव बनाया जाता है.... इस प्रोजेक्ट को ज्वाइन करने का या सेमीनार में शामिल होने का की या तो हाँ बोल देते हैं या फिर सोच कर बताऊंगा यह कह कर टाल देतें हैं. टाल देने से आप बरी नहीं हो जाते कुछ दिनों बाद या तो इसी तरह कोई दूसरा मित्र मिलता है या..... कोई परिचित किसी अन्य नायाब तरीके के साथ आ जाता है कुल मिलाकर इस समस्या का समाधान आज तक कोई ढून्ढ नहीं पाया है की ऐसे अनचाहे बिज़नस प्रोपोसल्स को कैसे मना किया जाये.
सवाल यह है की क्या नेटवर्क मार्केटिंग कंपनियों का यह तरीका जायज़ है ?.......... कुछ लोग इसमें फंस कर कुछ समय तक तो काम कर पाते हैं और बाद में अपने ही दोस्तों और रिश्तेदारों से सम्बन्ध खराब कर लेते हैं या अपनी पूँजी बर्बाद कर लेते हैं... अगर ये कम्पनियाँ वाकई अपना व्यपार बढ़ाना चाहती हैं तो सिर्फ ऐसे लोगों से ही संपर्क करे जो इस बिज़नस को करना चाहते हैं और भविष्य में भी सुचारू रूप से कर सकते हैं. एक सर्वे के मुताबिक ८० % लोग इस प्रकार की बिज़नस में अपना नुक्सान कर चुके हैं क्योंकि कुछ समय बाद वे कम्पनियाँ ही नहीं दिखाई देती जिनमे लोगों को अमीरी के सब्जबाग दिखाए जाते हैं.
सोचना हमे है की नेटवर्क मार्केटिंग द्वारा पैसा कमाने का शार्टकट ढूँढना है या जो व्यापार या नौकरी हम कर रहे हैं उसमे संतुष्ट रहना है.

BHRASHTACHAAR

भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन उचित है
बाबा रामदेव द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध छेड़ा गया अभियान वाकई काबिले तारीफ है. आज हमारे देश में सरकारी तंत्र के अलावा प्राइवेट सेक्टर भी भ्रष्टाचार से लिप्त है ऐसे माहोल में बाबा रामदेव का अभियान एक क्रांति की पहल के समान है. हमारे देश के सभी नागरिकों को इस आन्दोलन का समर्थन करना चाहिए जिससे की विदेशों में जमा काला धन हमारे देश में वापस आ सके और देश की तरक्की में उसका उपयोग हो सके. केंद्र सरकार के कुछ राजनेताओं द्वारा किया जा रहा आन्दोलन का विरोध और टिप्पणियां सरकार की छवि पर एक प्रश्नवाचक चिन्ह लगाने जैसा है. अगर इस ..आन्दोलन के द्वारा भ्रष्टाचार का नियंत्रण करने में हम थोड़े भी कामयाब हो गए तो यह भारत के लिए एक उपलब्धि होगी. देखना सिर्फ इतना है की इस आन्दोलन में कोई सियासत न हो और कोशिश ईमानदार हो.

Sunday, February 20, 2011

BHARTIYA SAMAJ ME STRIYON KA YOGDAN

भारतीय समाज में स्त्रियों का योगदान .................................
इतिहास से लेकर आज के आधुनिक युग तक अगर नज़र डालें तो भारतीय समाज में स्त्रियों का योगदान पुरुषों के मुकाबले कम नहीं है बदलते समय के साथ साथ स्त्रियों ने भी पुरुषों के सामान ही हर छेत्र में तरक्की की है जिस पर कभी पुरुषों का वर्चस्व हुआ करता था जैसे राजनीति, प्रशासनिक सेवाएँ , कार्पोरेट, खेल इत्यादि सभी छेत्रों में स्त्रियों के अच्छी कार्य क्षमता एवं बुद्धिमत्ता के प्रदर्शन को नकारा नहीं जा सकता.
लेकिन आज भी हमारे समाज में स्त्रियाँ असुरक्षित महसूस करती हैं उन्हें अत्याचार एवं शोषण का शिकार होना पड़ता है वैसे तो सरकार ने महिला योग जैसे संस्थानों का निर्माण कर रखा है  पर सभी के लिए उसका लाभ उठा पाना संभव नहीं हो पाता क्यों की महिलाओं के लिये बने कानून एवं अधिकारों की जानकारी का आभाव भी इसका एक मुख्य कारण है. सरकार को चाहिए के वे महिलाओं को अत्याचार एवं शोषण के विरुद्ध बने कानून एवं अधिकारों से अवगत कराए जिससे की अधिक से अधिक महिलाएं इसका लाभ उठा सकें और अत्याचार के खिलाफ लड़ सके.
इसके अलावा भारतीय समाज में पुरुष महिलाओं के प्रति अपनी सोच में बदलाव लायें ताकि किसी भी महिला को पुरुष प्रधान समाज एवं संस्थान में कार्य करने में असुविधा महसूस न हो.
आज के समाज में अगर हम महिलाओं के योगदान एवं तरक्की की बात करें तो इसका जीता जागता उदाहरण हमारे सामने है एक दिहाड़ी मजदूर की लड़की ने सरकारी स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर एयर इंडिया में एयर होस्टेस की नौकरी प्राप्त करी. ये हमारे समाज के लिए गर्व की बात है.

Thursday, February 3, 2011

VALENTINE DAY.......................

प्यार को प्यार ही रहने दो ............................................................
१४ फरवरी .....विश्व प्रेमी प्रेमिका  दिवस के रूप में मनाया जाता है ........ वैसे तो इस ढाई अक्षर के शब्द के कई रूप हैं पर आज के दिन पता नहीं इस शब्द में कौन से पंख लग जाते हैं ...........जो टूटे हुए छत्ते से मधु मक्खी की तरह उड़ने लगता है ........युवा वर्ग में एक विशेष उत्साह दिखाई देता है.......गिफ्ट शोप्स,फ्लावरशोप्स  और ग्रीटिंग कार्ड शोप्स को दुल्हन की तरह सजाया जाता है........शहर की होटलों में विशेष पार्टियाँ आयोजित की जाती हैं....ऐसा लगता है जैसे की सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्यार के इज़हार की तारीख मुक़र्रर की गई हो अगर आज इज़हार ना किया तो फिर अगली १४ तारीख दे दी जाए.
शिक्षण संस्थाओं में उत्सव का माहोल होता है ..........सड़कों पर युवाओं का उत्साह और उमंग देखने लायक नज़ारा होता है ..................ऐसा लगता है जैसे लैला - मजनू , हीर - राँझा, शिरी - फरहाद, रोमिओ  - जुलिअट सभी जन्नत से उतर कर सड़कों पर आ गए हों .................. और सिलसिला शुरू होता है प्यार के इज़हार का गुलाब के फूल, ग्रीटिंग कार्ड्स, गिफ्ट्स ................... इत्यादि के आदान प्रदान से  जिसका प्यार कबूल हो जाता है वह अपने आप को धरती का सबसे खुश नसीब इंसान समझने लगता  है और जिनके दिल टूटते हैं वो एक दो जगह और कोशिश कर के फिर इंतज़ार करते हैं...... अगली १४ फरवरी का इस ख्याल को ज़हन में रखते हुए की ." वो सुबह कभी तो आएगी ".......................
शाम होते होते जिनके दिल मिल जाते हैं वे होटल्स, रेस्टोरेंट्स,गार्डन्स और डी.जे पार्टियों में अपनी शाम बिता लेते हैं...... और टूटे हुए दिल अपना गम गलत कर लेते हैं ..
ऐसा नहीं है की आज का दिन शांतिपूर्ण तरीके से बीत जाता है कई राजनैतिक दल जो इसका विरोध करते हैं वे होटलों, दुकानों में तोड़ फोड़ गार्ड़न्स में युगल जोड़ों के साथ मार पीट और सड़कों पर हुडदंग जैसी वारदातों को अंजाम देते हैं........ ..और ऐवें ही शहर का माहोल बिगड़ जाता है ...उनके अनुसार यह हमारी संस्कृति का अपमान है ...उनका विचार सही है पर तरीका गलत है ........दहशत फैलाना किसी समस्या का समाधान नहीं है ..और ना ही किसी संस्कृति का हिस्सा .......
.... सवाल यह नहीं है की वेलेंटाइन डे मनाना गलत है सवाल यह है की क्या जो तरीका हमने अपना रखा है  वह किस हद तक सही है ..
प्यार सिर्फ एक शब्द नहीं है ये एहसास है रिश्तों का इसका इस तरीके से मज़ाक बना कर सड़कों पर इज़हार करना  इस शब्द और रिश्ते की गरिमा को ठेस पहुँचाने जैसा है.... इसे सौम्यता और शालीनता के साथ भी मनाया जा सकता है और कभी भी इज़हार किया जा सकता है प्यार किसी तारीख का मोहताज नहीं है.......... और भी दिवस हम मनाते हैं पाश्चात्य संस्कृति द्वारा दिए हुए जैसे मदर्स डे , फादर्स डे उस दिन युवाओं का उत्साह कहाँ चला जाता है माता पिता के प्रति आस्था और श्रद्धा व्यक्त  करने का ...................... इतना उत्साह परंपरागत त्योहारों मै क्यों  नहीं दिखाई देता ..  सोचना हमे है की प्यार को प्यार ही रहने देना है या उसका तमाशा बनाना है....

J
AIDEEP R.BHAGWAT


19- SUN CITY, MR- 2
MAHALAXMI NAGAR, INDORE (M.P)
08223907282,08370004121
EMAIL.... jrbhagwat@gmail.com, jaideeprbhagwat@rediffmail.com

REPUBLIC DAY...................................

ज़रा सोचिये ...................................................................................


२६ जनवरी हमारे देश में पिछले ६० वर्षों से गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता आ रहा है .. आज के दिन हमारे देश का संविधान बना था ..
लेकिन अब ऐसा लगता है जैसे यह सिर्फ एक "नेशनल होलीडे" बनकर रह गया है . आज तक न तो इसका रूप बदला है न ही किसी ने बदलने का प्रयास किया..दिल्ली के लाल किले में झंडा फहराना, परेड, राष्ट्रपति का भाषण, झांकियां, शहीदों और वीरों का सम्मान ये औपचारिकतायें अत्यधिक् ज़रूरी हैं इनका आदर..... करना हर देशवासी का कर्त्तव्य है.लेकिन इसके अलावा देश के विभिन्न राज्यों एवं शहरों में जो कार्यक्रम....होते हैं अगर हम उन पर नज़र डालें तो चिराग तले अँधेरा ही नज़र आता है..

सरकारी संस्थाओं में झंडा वंदन की औपचारिकता के बाद छोटा मोटा भाषण और लोग अपने घर चले जाते हैं यही आलम निजी संस्थानों का भी होता है.. शिक्षण संस्थानों में औपचारिकताओं के बाद किसी नेता या मंत्री का भाषण, सांस्कृतिक कार्यक्रम और उसके बाद बच्चे लड्डू लेकर घर लौट आते हैं.......राजनैतिक दल जगह- जगह लाउड स्पीकर्स लगाकर देशभक्ति के गीत बजाते हैं..... सारी देश भक्ति आज ही के दिन दिखाई देती है... ये देश भक्ति होती है या शक्ति प्रदर्शन समझ पाना मुश्किल है.. कुछ नेता- मंत्री महापुरुषों के पुतलों पर हार फूल चढ़ाकर सम्मान व्यक्त...... करतें हैं या सम्मानित महसूस करते हैं..

अब अगर आम जनता की बात करें तो उनके लिए यह एक छुट्टी से ज्यादा कुछ भी नहीं है .. ऐसे में कभी २६ जनवरी शनिवार या सोमवार को आ जाये तो सोने पे सुहागा ........ आज की पीढ़ी की भाषा में कहें तो वीकेंड अच्छा मनेगा.... पिकनिक स्थलों पर पैर रखने की भी जगह नहीं होती............ इस दिन कुछ तथा कथित लोगों का गला सूखता ही नहीं ..... बल्कि ड्राय डे की हड्डी भी गले में अटकी पड़ी रहती है...... कुल मिलाकर गणतंत्र दिवस का एहसास कम और छुट्टी का आलस ज्यादा होता है ........लोग अपने बच्चों के लिए सड़कों पर बिकने वाले झंडे खरीदते हैं...जो दुसरे दिन सड़कों पर इधर उधर उड़ते नज़र आते हैं.. इतने झंडे तो इमारतों और कार्यालयों में नहीं फहराए जाते जितने की दुसरे दिन सड़कों पर बेशर्मी से रौंदे जाते हैं इससे बड़ा तिरंगे का अपमान और क्या होगा....

हम कब तक इसी तरह गणतंत्र दिवस मनाते रहेंगे ........... जिन शहीदों और महापुरुषों की कुर्बानियों से हम इस आज़ाद वतन में सांस ले रहे हैं क्या यही तरीका है उन्हें याद करने का..... क्या टेलिविज़न चैनलों पर एक दिन देश भक्ति की फिल्म देख लेने से हम देश भक्त हो हो जाते हैं.... क्या एक मरणोपरांत मैडल द्वारा सम्मान ही उनकी शहादत का पुरस्कार है......... भगत सिंग, चन्द्रशेखर आज़ाद, सुखदेव, राजगुरु और उनके जैसे कई शहीदों के नाम आज गुमनामी के अंधेरो में गुम होते जा रहे हैं........... क्यों २६.११ में शहीद हुए एक जवान के पिता ने मुख्यमंत्री को अपशब्द कहकर घर से निकाल दिया..................... क्यों आज का अधिकांश युवा वर्ग डिफेन्स सर्विसेस में नहीं जाना चाहता..................... क्यों हम भूलते जा रहे हैं उन लोगों के योगदान को जो हमारे देश के आधारस्तंभ हैं........ यह एक गहन चिंतन का विषय है........................................................................................क्यों न हम इस २६ जनवरी से कुछ ऐसा करें...... शहीदों और उनके परिवार के लिए की उनके परिवार भी हम देशवासियों पर गर्व करें और .... अमर शहीदों की आत्माएं भी गर्व से कहें .................
कर चले हम फ़िदा जानोतन साथियों अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों..................... ज़रा सोचिये ............


J
AIDEEP R.BHAGWAT

ASST.ZONAL SALES MANAGER
AUTOCOP INDIA PVT.LTD, M- 47, NEW SIYAGANJ, PATTHAR GODAM ROAD, INDORE. M.P 07314224095.

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Sunday, January 23, 2011

MAHANGAI DAAYAN............................................................

महंगाई डायन.................................
बढती हुई महंगाई ने भले ही देश की अर्थ व्यवस्था को मजबूती प्रदान करी हो लेकिन इसकी रफ़्तार से आम जनता ही नहीं बल्कि सभी वर्ग पर प्रभाव पड़ा है.. बढती महंगाई ने आम जनता की आर्थिक स्थिति को डगमगा दिया है.. इसके बढ़ने का मुख्य कारण बढती हुई जनसँख्या,उत्पादन कम और उपभोक्ता अधिक, सरकार की नीतियाँ इत्यादि हैं.
केंद्र सरकार को चाहिए की अपनी नीतियों पर पुनःविचार करें....... और एक विशेष समिति गठित कर आयात एवं निर्यात की वस्तुओं का अवलोकन करें जिससे की यह निर्धारण हो सके कि हमारे देश की खपत के अनुसार कितना आयात करना है और कितना निर्यात किया जा सकता है.... उद्देश्य यह न हो कि अधिक कीमत मिलने कि वजह से हमारे देश में होने वाली खपत को नज़रंदाज़ कर निर्यात कर दिया जाये........... गरीबी रेखा के नीचे के वर्ग के लिए
कंट्रोल कि दुकानों पर होने वाले भ्रष्टाचार को रोककर उन्हें उचित मूल्य पर अनाज एवं रोज़मर्रा कि वस्तुएँ उपलब्ध कराई जाएँ........... सरकार को चाहिए कि उत्पादन का एक लक्ष्य निधारित करे और इसकी जानकारी हर भारतीय नागरिक तक पहुंचे......... किसानो के लिए विशेष योजनायें बनाकर अनाज के उत्पादन को बढ़ने का प्रयास किया जाये..
गैर सरकारी तरीकों पर अगर गौर करें तो देश कि बड़ी कंपनियों को चाहिए कि.... उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं कि गुणवत्ता सुधार कर उचित मूल्य पर बाज़ार में बेचें और सरकार से अनुरोध कर सेल्स टैक्स और एक्साईज ड्यूटी में छूट कि अपील करें.......... जिससे कि हमारी निर्भरता आयातित वस्तुओं पर कम हो सके जो कि हमे ऊँचे दामो पर आयातित करनी पड़ती हैं.... आम जनता अपनी वित्तीय प्राथमिकताओं का निर्धारण करे और फिजूलखर्ची में लगने
वाले धन को बचत में परिवर्तित कर रोज़मर्रा कि वस्तुओं के संग्रहण में उपयोग में लायें..........पेट्रोल कि कीमतों में वृद्धि ने भी आम जनता के बजट को अस्त व्यस्त कर दिया है... फिर भी वाहनों के उपयोग एवं बिक्री पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है.............. पब्लिक ट्रांसपोर्ट का उपयोग भी बचत का एक उपाय है क्योंकि आम जनता कि आमदनी उस रफ़्तार से नहीं बढ़ रही है जिस रफ़्तार से महंगाई...
कहीं ऐसा न हो यह गीत ज़िन्दगी भर हमे गाना पड़े.......... सखी सैय्याँ तो खूब ही कमात है... महंगाई डायन खाए जात है....


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JAIDEEP R.BHAGWAT

ASST.ZONAL SALES MANAGER
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Thursday, January 6, 2011

HELMET

हेलमेट की अनिवार्यता ......................................................
हेलमेट की अनिवार्यता के लिए प्रशासन द्वारा जो प्रयास किये जा रहे हैं वे प्रशंसनीय हैं ..यह हमारी सुरक्षा के लिए है और इसका  उपयोग हर दो पहिया चालक की अनमोल ज़िन्दगी के लिए अत्यधिक ज़रूरी है .. जैसे हम घर से निकलते वक्त रुमाल,पर्स और घडी रखना नहीं भूलते उसी प्रकार हेलमेट को भी अपनी ज़िन्दगी का हिस्सा बना लें..आज ज़रूर यह बोझ लग रहा है पर सड़क दुर्घटना में जान गवाने या अपाहिज होकर ज़िन्दगी भर परिवार पर बोझ बनने से ये बोझ ज्यादा बेहतर है....प्रशासन को चाहिए की कुछ समय बाद इस नियम का और सख्ती से पालन करवाएं ..अगर यह मुहीम कुछ समय चलकर ठंडी पड गयी तो प्रशासन जाने अनजाने में उन कई हेलमेट बनाने वाली कंपनियों का भला कर देगा जिनके हेलमेट बरसों से गोदाम में पड़े धूल खा रहे है...............
 

LEKHAK

मै लेखक नहीं था ...............................................
एक सुबह घर के सामने एक हादसे ने मेरी अंतरात्मा को झकझोर दिया और उसके बाद जो विचार मन में आये कागज़ पर लिखता चला गया .........इस तरह  शुरू हुआ लिखने का सिलसिला हर आने वाले विचार को कागज़ पर उतारते उतारते एक विचार ने आर्टिकल  का रूप ले लिया और प्रकाशित हुआ "नई  दुनिया " अखबार में २९.११.२०१० को  शायद मेरे जीवन की सबसे खुशनुमा सुबह थी ...धन्यवाद देता हूँ "नई दुनिया " का जिसने मुझे अवसर दिया अपने विचारों को व्यक्त करने का, कई लोगों के फ़ोन आये बधाइयों के साथ कई लोगों ने पुछा क्या यह तुमने ही लिखा है ?....भरोसा नहीं था किसी को शायद की मै भी लिख सकता हूँ .........लोगों की गलती नहीं है मुझे जिस रूप में लोग जानते हैं शायद मै ये नहीं था .............
विचार हर व्यति के मन में आते हैं पर कई लोग उसे व्यक्त कर पाते हैं कई उसे नहीं .............मेरे पास लेखन की कोई डिग्री नहीं है .............पर एक बात सभी से कहना चाहूँगा मन में आने वाले विचारों को ना रोकें उन्हें समेट ले कागजों में  क्या पता कल वो आर्टिकल की शक्ल लेकर किसी को सोचने पर मजबूर कर दे या किसी की  सोच में परिवर्तन ले आये...