Friday, May 20, 2011

POST 2

भाषा और हमारा व्यक्तित्व.... ( LANGUAGE AND OUR PERSONALITY )
भाषा क्या केवल "भाष" धातु से बना एक शब्द है या इससे अधिक कुछ और ?
वर्तमान परिपेक्ष्य में यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण और ज्वलंत विषय है | भाषा को केवल विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम भर समझा जाता है जबकि यह वह ज़रिया है जिसके द्वारा हम समूचे विश्व से रूबरू होते हैं |  तब क्या इस ज़रिये का पूर्ण रूप से शुद्ध और प्रभावी होना महत्वपूर्ण नहीं है ? ऐसा क्यों होता है यद्यपि बोलने का सामर्थ्य इश्वर प्रद्दत है और इसके लिए हमे कुछ विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता तथापि हम में से कुछ लोग ही ऐसे हैं जब वे बोलना प्रारंभ करते हैं तो शेष सभी उन्हें सुनने के लिए विवश हो जाते हैं | 
वस्तुतः प्रस्तुतीकरण ( PRESENTATION ) के इस दौर में भाषा हमारे व्यक्तित्व का आईना हो चली है बाह्य रूप से कोई व्यक्ति कितना ही आकर्षक हो परन्तु यह प्रभाव अधिक समय तक नहीं रह सकता यदि उसका भाषा पर विशेष अधिकार न हो | वहीँ सामान्य व्यक्तित्व  के साथ कोई भाषा का जादूगर गहरा प्रभाव छोड़ सकता है |
यहाँ उल्लेखनीय है कि आज की युवा पीढ़ी जब उच्च शिक्षा के बाद जीवन-चर्या ( CAREER ) के निर्णायक  मोड़ पर होती है तब उसे सिरे से नकार  दिया जाता है और उसे व्यक्तित्व विकास ( PERSONALITY DEVELOPMENT )  जैसे पाठ्यक्रमो के समक्ष शरणागत होना पड़ता है | मूल रूप से यह हमारी शिक्षा व्यवस्था की दयनीय स्थिति का घोतक है जो बड़े पैमाने पर अन्धाधून्द गति से शिक्षा का ऐसा महल बनाने  में व्यस्त है, जिसकी भाषा रुपी नीव ही अत्यंत कमज़ोर है |
गौरतलब है जहाँ विदेशों में प्राथमिक कक्षाओं में भी बच्चों को शब्दकोष रखना अनिवार्य है, वहीँ हमारे विश्वविद्यालयीन छात्र भी शब्दकोष के महत्व से अनभिज्ञ हैं |
वैश्वीकरण ( GLOBALIZATION ) के इस युग में आवश्यक है कि हम न केवल प्रादेशिक भाषाओँ की राजनितिक लड़ाइयों से उबरें वरन हिंदी- अंग्रेजी के बचकाना विवादों से बचते हुए वृहद् स्तर पर परिपक्व मानसिकता से इस विषय पर निर्णायक विचार करें कि विश्व की कोई भी भाषा कम या अधिक महत्वपूर्ण नहीं है | महत्वपूर्ण है किसी भी भाषा का शुद्ध और सही प्रयोग और इस दिशा में किये गए सार्थक प्रयास |

POST 1

इच्छा, आवश्यकता और बाजारवाद ...................................
परम्पराओं और मूल्यों का परिवर्तन वर्त्तमान समय की एक ऐसी सच्चाई है जिसे नकारा जाना संभव नहीं है | बदलाव की इस आंधी में इच्छाओं और आवश्यकताओं के बीच का अंतर बहुत कम हो गया है | यदि आर्थिक मंदी जैसी वैश्विक समस्याओं का विश्लेषण किया जाये तब भी मूलतः यही निष्कर्ष निकलता है कि जब-जब चादर से अधिक पैर फ़ैलाने कि कोशिश की गई और मनुष्य इच्छाओं को आवश्यकता समझने का भ्रमजाल बुनता रहा तब-तब आर्थिक समस्याओं से दो-दो हाथ होता रहा | इसके लिए किसी हद तक बाजारवाद भी ज़िम्मेदार है जो एक आवश्यक वस्तुओं के इर्द गिर्द पचास अनावश्यक वस्तुओं को इस सलीके से प्रस्तुत करता है कि एक साधारण मनुष्य के लिए मोह संवरण कर पाना मुश्किल हो जाता है  और मॉल संस्कृति की इसी चकाचौंध से वशीभूत मानव दस आवश्यक वस्तुओं के साथ अनाश्यक वस्तुएं खरीद लाता है और जब उसकी जेब इस आर्थिक बोझ को वहन करने में असमर्थ हो जाती है तो धनार्जन के तमाम जायज़ तरीकों को ताक पर रख कर अधिक से अधिक धन कमाने कि ऐसी अंधी दौड़ में शामिल हो जाता है जो आर्थिक अपराधों कि जन्मदात्री है | 
आज के तकनीकी विकास ने बाज़ार को ऊँगली पकड़ कर घरों में दाखिल कर दिया है टेलिविज़न और इन्टरनेट से हम खुद को विश्वबाजार में खड़ा पाते हैं | यह सही है कि बाजारवाद को रोकना संभव नहीं है लेकिन मनुष्य अपनी इच्छाओं पर शत-प्रतिशत काबू पा सकता है | यदि वह ठान ले कि दो लोगों के घर में "फोर बर्नर" चूल्हे कि क्या आवश्यकता है ! एक सिम से काम चलता हो तो ड्युअल सिम फोन कि क्या ज़रूरत है ! यदि दफ्तर सौ कदम की दूरी पर हो तो कार की जगह साइकिल से काम चलाया जा सकता है ! परन्तु कार खरीदने  के पीछे सुविधा कम और स्टेटस अधिक दिखाई देता है | दरअसल यहाँ ज़रूरत उलटी गिनती की है .............. आर्थिक अपराधों के पीछे बाजारवाद .... बाजारवाद के पीछे हमारी अपनी इच्छाएँ ....  और इच्छाओं के पीछे डरी सहमी सी आवश्यकताएँ ...... और ज़रुरत है तो बस समझदारी से आवश्यकताओं पर रुक जाने की ठहर जाने की ................