Friday, May 20, 2011

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इच्छा, आवश्यकता और बाजारवाद ...................................
परम्पराओं और मूल्यों का परिवर्तन वर्त्तमान समय की एक ऐसी सच्चाई है जिसे नकारा जाना संभव नहीं है | बदलाव की इस आंधी में इच्छाओं और आवश्यकताओं के बीच का अंतर बहुत कम हो गया है | यदि आर्थिक मंदी जैसी वैश्विक समस्याओं का विश्लेषण किया जाये तब भी मूलतः यही निष्कर्ष निकलता है कि जब-जब चादर से अधिक पैर फ़ैलाने कि कोशिश की गई और मनुष्य इच्छाओं को आवश्यकता समझने का भ्रमजाल बुनता रहा तब-तब आर्थिक समस्याओं से दो-दो हाथ होता रहा | इसके लिए किसी हद तक बाजारवाद भी ज़िम्मेदार है जो एक आवश्यक वस्तुओं के इर्द गिर्द पचास अनावश्यक वस्तुओं को इस सलीके से प्रस्तुत करता है कि एक साधारण मनुष्य के लिए मोह संवरण कर पाना मुश्किल हो जाता है  और मॉल संस्कृति की इसी चकाचौंध से वशीभूत मानव दस आवश्यक वस्तुओं के साथ अनाश्यक वस्तुएं खरीद लाता है और जब उसकी जेब इस आर्थिक बोझ को वहन करने में असमर्थ हो जाती है तो धनार्जन के तमाम जायज़ तरीकों को ताक पर रख कर अधिक से अधिक धन कमाने कि ऐसी अंधी दौड़ में शामिल हो जाता है जो आर्थिक अपराधों कि जन्मदात्री है | 
आज के तकनीकी विकास ने बाज़ार को ऊँगली पकड़ कर घरों में दाखिल कर दिया है टेलिविज़न और इन्टरनेट से हम खुद को विश्वबाजार में खड़ा पाते हैं | यह सही है कि बाजारवाद को रोकना संभव नहीं है लेकिन मनुष्य अपनी इच्छाओं पर शत-प्रतिशत काबू पा सकता है | यदि वह ठान ले कि दो लोगों के घर में "फोर बर्नर" चूल्हे कि क्या आवश्यकता है ! एक सिम से काम चलता हो तो ड्युअल सिम फोन कि क्या ज़रूरत है ! यदि दफ्तर सौ कदम की दूरी पर हो तो कार की जगह साइकिल से काम चलाया जा सकता है ! परन्तु कार खरीदने  के पीछे सुविधा कम और स्टेटस अधिक दिखाई देता है | दरअसल यहाँ ज़रूरत उलटी गिनती की है .............. आर्थिक अपराधों के पीछे बाजारवाद .... बाजारवाद के पीछे हमारी अपनी इच्छाएँ ....  और इच्छाओं के पीछे डरी सहमी सी आवश्यकताएँ ...... और ज़रुरत है तो बस समझदारी से आवश्यकताओं पर रुक जाने की ठहर जाने की ................

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