कहीं अपराध ही सृष्टि के अंत का आगाज़ तो नहीं ............
यूँ तो सारी दुनिया में अपराध हो रहे हैं, पर अगर हमारे देश या प्रदेश पर गौर करें तो बढ़ते हुए अपराधों की संख्या के अलावा आपको उसमे विविधता भी देखने को मिलेगी, खासतौर पर अकारण अपराधों की श्रेणी में हमारा प्रदेश सबसे आगे है. हाल ही में रीवा में एक बस कंडक्टर द्वारा महज़ ५ रुपये के विवाद पर एक छात्र को बस से धक्का दे दिया गया और डिवाईडर से टकराकर उसकी मौत हो गई. कभी नाइट्रावेट के नशे में मासूम लोगों को मौत के घाट उतार दिया जाता है तो कभी मामूली से विवाद में हत्या हो जाती है.हमारे यहाँ अपराध मौसम की तरह बदलते हैं कभी राजनैतिक अपराधों का दौर होता है तो कभी घोटालों का या रिश्वतखोरों का कभी भू माफियाओं का दौर रहता है तो कभी आर्थिक अपराधों का, हाल ही में दौर चला था बलात्कारों का जिसने सारे प्रदेश को शर्मसार कर दिया और हिंदुस्तान का दिल कहे जाने वाले मध्य प्रदेश का दिल सारी दुनिया को दिखा दिया. जिन छेत्रों में ये वारदात हुई अगर हम उन छेत्रों के नामो का संधि विच्छेद करें तो समझ मे आएगा की इंसानियत, संस्कृति और सभ्यता किस तरह शर्मसार हुई सबसे पहला कांड हुआ बेटमा में इस कसबे के नाम में बेटा और माँ दोनों शब्द शामिल हैं जहाँ कई बेटों ने मिल कर माँ के नाम को कलंकित किया. देपालपुर गाँव इस नाम से यह आशय लगाया जा सकता है की इसके पालक देवता हैं यहाँ पर एक मूक बधिर के साथ बलात्कार हुआ और जनता मूक बनी रही और प्रशासन बधिर. देवास नाका जिसके नाम में ही देवताओं का वास है वहां एक महिला के साथ पुनः सामूहिक दुष्कृत्य किया गया. लूट, डकैती, चोरी ये अपराध आजकल आम अपराधों की श्रेणी में आते हैं. और हत्या और बलात्कार जैसे संगीन अपराध धीरे - धीरे आम होते जा रहे हैं. कई अपराधियों को सजा हो जाती है कई रिहा हो जाते है और कई खुले आम घूम रहे हैं, क्या सिर्फ सजा देने से अपराधों का अंत संभव है ? यह एक अत्यंत ही गंभीर एवं सोचनीय विषय है जिसका जवाब शायद कानून विशेषज्ञों के पास भी नहीं मिलेगा.
आज हमारे देश ने आर्थिक, व्यावसायिक और तकनिकी उन्नति तो काफी रफ़्तार से कर ली है पर उतनी ही रफ़्तार के साथ हमारा सांस्कृतिक और सामाजिक पतन भी हुआ है. जब भी अपराध होते हैं तो इसका कलंक संस्कृति, समाज और सभ्यता पर लगता है. इसका कारण कुछ हद तक अशिक्षा को माना जाये तो सही पर शिक्षित वर्ग भी अपराधों में शामिल है उसका ज़िम्मेदार कौन है. अपराध समाज की ही देन है और इस पर रोक भी समाज द्वारा ही लगाई जा सकती है कानून तो एक नियंत्रण का ज़रिया है.
हम रोज़ सुबह की शुरुआत अखबार से करते हैं, एक सकारात्मक सोच लेकर लेकिन रोज़ अखबारों में आपराधिक ख़बरें पढ़ कर मन विचलित हो जाता है. कई बार मन में यह ख्याल भी आता है की एक दिन तो ऐसा अखबार प्रकाशित होगा जिसमे एक भी अप्रिय घटना का समाचार न हो शायद वो हमारी ज़िन्दगी का पहला और सबसे अविस्मर्णीय सकारात्मक दिन होगा. अन्यथा कहीं ऐसा न हो की अंतर्राष्ट्रीय, खेल, व्यवसाय जैसे पृष्ठों की तरह एक दिन अपराध का भी एक अलग से पृष्ठ अखबार में देखने को मिले. कई भविष्य वक्ताओं ने कहा है की २०१२ में सृष्टि का अंत है यह होगा या नहीं यह तो कोई नहीं जानता लेकिन अपराधों ने जो इंसानियत का अंत किया है क्या यही सृष्टि के अंत का आगाज़ तो नहीं................................... ज़रा सोचिये ...
JAIDEEP R.BHAGWAT
19.. SUNCITY
INDORE
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